प्रसिद्ध संगीतज्ञ प0 विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जिनको लोग ग्वालियर घराने के नाम से जाने जाते थे। इनका जन्म 18 अगस्त 1872 ई0 में श्रावण की पूर्णिमा को कुरून्द वाड. रियासत के बेल गांव नामक स्थान पर हुआ था इनके पिता का नाम दिगम्बर गोपाल और माता का नाम गंगा देवी था इनके पिता बहुत बडे. भजन एवं कीर्तनकार थे और बहुत अच्छा गाते थे। दिगम्बर गोपाल जी ने अपने पुत्र विष्णु दिगम्बर को एक अच्छे स्कूल में ले जाकर उनका दाखिला करवा दिया और स्कूल भेजना शुरू कर दिया।
दिवाली, हिन्दुओ का त्योहार जिसमें सभी लोगो के घरो में पटाखे, अनार, फुलझरी आदि की आतिसबाजी करके त्योहार मनाते है इसी आतिसबाजी विष्णू दिगंबर जी आंखे खराब हो गयी क्योंकि उस समय बहुत कम मात्रा में डाक्टर होते थे। आंखे खराब होने के कारण इनका अध्ययन बन्द करना पडा। आंखो के बना काम या उचित व्यवसाय ना मिलने के कारण इनके पिता ने अपने पुत्र को संगीत सिखाना शुरू कर दिया बाद में उनको मिरज के पंडित बाल कृष्ण बुआ के पास अपने पुत्र को संगीत की शिक्षा गृहण कराने उनके पास भेज दिया। उस समय वहां मिराज रियासत के तत्कालीन महाराजा ने उन्हे आश्रय दिया और विष्णू दिगंबर पलुस्कर के लिए सभी प्रकार की व्यवस्था करा दी।
इनके जीवन की एक और हृदय विदारक घटना – एक बार मिराज रियासत में एक बहुत बडी सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया और उस समय रियासत के सभी प्रतिष्ठावान लोगो को बुलागया गया। प0 विष्णू दिगम्बर जी को राजश्रय प्राप्त होने के कारण इन्हे भी आमंत्रित किया गया लेकिन इनके गुरू जी को उस सभा में नही आमंत्रित किया गया इसे सुनकर पंडित जी बडे आश्चर्य में पड गये और ना बुलाने का कारण जानना चाहा पूछने पर जो उन्हे उत्तर मिला आश्चर्यजनक था अरे वे तो गवैया है उन्हे क्या बुलाया जाय।
अपने पूज्य गुरू ओर गवैयों के विषय में कहे गये शब्द उनके सीने में तीर की तरह चुभ गये और वे अचंभित हो गये कि असे इस समाज में संगीतज्ञो की दयनीय दशा है। प0 जी ने उसी समय प्रण किया कि संगीतज्ञो की दयनीय दशा को सुधारने और समाज में संगीत को उच्च स्थान दिलवाने और संगीत का सभी जगह प्रचार प्रसार करने की प्रतिज्ञा ली।
सन् 1896 में राजाश्रय के सभी सुखो को त्याग कर संगीत के प्रचार और संगीत को उच्च स्थान दिलाने के लिए देशाटन के लिए प्रस्थान कर दिया। सबसे पहले वे सतारा गये वहां पर उनका भव्य स्वागत किया गया और उनका संगीत गायन का कार्यक्रम बहुत सफल रहा और सतारा के लोगो में संगीत और संगीतज्ञो के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। इस कार्यक्रम की सफलता के बाद प0 जी ने भारत के अनेक जगहों पर भ्रमण किया और सभी जगहो पर अपने संगीत कार्यक्रमो से श्रोतागणो को मंत्रमुग्ध कर दिया कुछ उल्लेखनीय नाम है – लाहौर, दिल्ली, बडौदा, ग्वालियर, इलाहाबाद, भरतपुर, श्रीनगर आदि जिन जिन जगहों पर प0 जी गये अपने संगीत गायन से श्रोताओं को संगीत की तरफ आकर्शित किया और संगीत का नाम बढाया।
संगीत का प्रचार और प्रसार करते करते पं0 विष्णू दिगम्बर जी ने यह ज्ञात किया कि सबसे पहले जो गीत गाये जा रहे है उन गीतों से श्रंगार रस के अशोभनीय शब्दों को निकालकर भग्ति रस के सोभनीय सुन्दर शब्दों को रखा जाये। और जगर जगह संगीत के कुछ विधालय स्थापित किये जाये जहां इन विधालयों में बालक एवं बालिकाओं को संगीत की अच्छी शिक्षा दी जा सके अत: पं0 जी ने बहुत से गीतो के शब्दो में परिवर्तन किये और 5 मई 1901 को लाहौर में पहला संगीत स्कूल जिसका नाम गांधर्व महाविधालय के नाम से स्थापना की। इस विधालय को सही प्रकार से चलाने के लिए पं0 जी को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पडा उनको जो कहीं से थोडा बहुत धन मिला तो उस पैसे को विधालय के विकास के लिए लगा देते। कुछ दिनों तक स्कूल में संगीत की शिक्षा के लिए एक भी व्यक्ति प्रवेश के लिए नही आया।
लेकिन विष्णू दिगम्ब्र जी ने हार नही मानी और स्कूल का जो समय निर्धारति किया था उस सतय स्वयं तानपुरा लेकर अभ्यास करते कुछ समय स्कूल में विधार्थी आने लगे और संख्या बढ्ने लगी। इसी समय अपने पिता जी की मृत्यु का दुखद समाचार प्राप्त हुआ लेकिन विधालय के कार्यो में इनती व्यस्तता होने के कारण उस समय अपने घर नही पहुंच सके।
सन 1908 में मुम्बई के गांधर्व विधालय की एक और शाखा की स्थापना की। मुम्बई से लाहौर की अपेक्षा ज्यादा सफलता मिली इस विधालय में संगीत शिक्षा ग्रहण करने वाले विधार्थियों की संख्या काफी थी।
ये विधालय लगभग 15 वर्षों तक सही प्रकार से चलता रहा। अपना निजी भवन लेने के कारण विधालय के ऊपर काफी कर्ज लेना पडा काफी समय तक ऋण चलता रहा और समय पर कर्ज न चुकता होने के कारण विधालय का भवन ऋण में चला गया और विधालय बन्द हो गया।
उसके बाद पं0 जी का मन राम नाम की ओर आकर्षित हुआ। और अपने पुराने वस्त्र त्याग कर गेरूवा वस्त्र धारण कर लिया और रधुपति राधव राजा राम में मस्त रहने लगे. और नासिक चले गये और वहां जाकर राम नाम आश्रम की स्थापना की।
वैदिक काल में प्रचलित आश्रम प्रणाली के आधार पर विष्णू दिगम्ब्र जी ने लगभग 100 शिष्यों को तैयार किया जिसमें से कुछ निम्नलिखित है – स्व0 वी0ए0 कशालकर, स्व0 पं0 ओमकार नाथ ठाकुर, बी0 आर0 देवधर, स्व0 बी0एन0 ठकार स्व0 बी0एन0 पटवर्धन आदि।
उस समय गीत लिखने के लिए काई स्वर लिपि पद्धति न थी इस कारण एक स्वर लिपि पद्धति विकशित कया इस पद्धति से विदित है। इन्होने लगभग 50 पुस्तकें लिखी। संगीत प्रचार के लिए संगीतामृत प्रवाह नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन करवाया सन 1930 में उन्हे लकवा मार गया अन्त में 21 अगस्त 1931 को इनकी मृत्यु हो गयी। इनके 12 पुत्र हुए इनमें से 11 पुत्रों की मृत्यु बाल्यावस्था में हो गयी केवल एक पुत्र जिसका नाम दत्तात्तेय विष्णू पलुस्कर अपने जीवन के 35 वर्षों तक संगीत की सेवा किया सन 1955 की विजयदशमी को इनका भी देहान्त हो गया।
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